हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, अल्लामा महमूदुल हसन सन् 1939ईसवी में मौज़ा अलीगढ़, ज़िला सुलतानपुर, सूबा उत्तर प्रदेश पर पैदा हुए। आप के वालिद मौलाना बख्तावर अली, एक बुलंद पाया आलिमे-बा-अमल थे। मौलाना बख्तावर अली के दादा, बख़शी खान, अमहट (सुलतानपुर) के ताअल्लुकदार थे और तक़रीबन साठ देहात के मालिक होते थे।
सन् 1857 की जंग-ए-आज़ादी में जब उन्होंने हुकूमत-ए-अवध का साथ दिया और अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग में शरीक हुए तो इस जुर्म की पैदाइश में अंग्रेज़ हुकूमत ने उनकी जागीर ज़ब्त कर ली। जिसके नतीजे में मौलाना बख्तावर अली के ख़ानदान की मआशी व सियासी हालत कमज़ोर हो गई, और अहले खाना मुख़तलिफ मक़ामात की तरफ़ हिजरत पर मज़बूर हो गए। मौलाना बख्तावर अली ने भी रोज़गार की तलाश में लाहौर का रुख किया और रेलवे के महकमे में मुलाज़ेमत इख़्तियार की। उसके बाद सन् 1910 इसवी में हुसूले इल्म के जज़्बे के तहत मुलाज़ेमत से इस्तीफ़ा दे कर इराक़ तशरीफ़ ले गए, जहाँ उन्होंने उलूमे दीनिया के हुसूल में खुद को वक़्फ़ कर दिया।
अल्लामा महमूदुल हसन ख़ान ने सन्1949 इसवी में नजफ़े अशरफ में अरबी व फ़ारसी की इब्तिदाई तालीम अपने वालिद-ए-मोहतरम से हासिल की। उसके बाद, आप ने दिगर जलील उल-क़दर असातिज़ा से कस्ब-ए-इल्म किया और इल्मी मदारिज तय करते हुए बुलंद मर्तबा हासिल किया। आप के असातिज़ा में आयतुल्लाह हैदर अब्बास इलाहबादी, आयतुल्लाह असद मदनी, शहीद आयतुल्लाह मिर्ज़ा अली ग़र तबरेज़ी, आयतुल्लाह शेख़ मोहम्मद अली, आयतुल्लाह शेख़ अब्बास क़ूचानी, आयतुल्लाह मिर्ज़ा मुसलिम मलकूती, आयतुल्लाह महमूद शाहरूदी, आयतुल्लाहिल उज़मा मोहसिनुल-हकीम, आयतुल्लाहिल उज़्मा अबुल-क़ासिम ख़ुई, आयतुल्लाह शेख़ मोहम्मद रज़ा मुज़फ़्फ़र, और उस्तादुल असातिज़ा शेख़ मोहम्मद अली मुदर्रिसे अफ़ग़ानी जैसे अकाबीर शामिल हैं।
आप की इल्मी अज़मत के ऐतराफ़ में मुत्ताअदिद मराजे किराम ने इजाज़ात से नवाज़ा, जिन में आयतुल्लाहिल उज़मा मकारिम शीराज़ी, आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ुई, आयतुल्लाह हुसैन नूरी, आयतुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी (रह), आयतुल्लाह मोहम्मद अली इराक़ी, और आयतुल्लाहिल उज़मा सय्यद अब्दुल्लाह शिराज़ी के अस्माए गिरामी क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
आप ने तद्रीसी सफ़र का आगाज़ भी नजफ़े अशरफ से किया। जहाँ आप न केवल आला तालीम में मशग़ूल रहे बल्कि दुरूस-ए-सतहिया की तद्रीस भी फरमाते रहे। आप के दर्स में हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की से ताअल्लुक रखने वाले दर्जनों तुल्लाब शरीक होते थे। आप के मुम्ताज़ शागिर्दों में आलिमा तालिब, जोहरी, सदरुल-उलमा सलमान हैदर आबिदी, मौलाना अम्मार हैदर आबिदी, आलिमा ज़ीशान हैदर जवादी और मौलाना अली अब्बास सुलतानपुरी के अस्माए गिरामी क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
सन् 1962 में आप वतन वापस तशरीफ़ लाए और बड़े पैमाने पर तब्लिग-ए-दीन का आगाज़ किया। आप ने अपने इलाक़े में दीनी माहौल क़ायम करने के लिए अनथक मेहनत की, जिस के नतीजे में बड़ी तादाद में लोग शरीअत के पाबंद हो गए। उसके बाद आप ने क़सबा पिहानी, ज़िला हरदोई में नवाब पिहानी और दिगर मोमिनीन की मदद से "मदरसा हामिदुल-मदारिस" के नाम से एक दीनी इदारा क़ायम किया। यहाँ मुल्क के मुख़तलिफ़ इलाक़ों से तुल्लाब को जमा करके उनकी तालीम व तरबियत का सिलसिला शुरू किया और सैंकड़ों तुल्लाब को उलूम-ए-दीनिया से आरास्ता किया।
आप के नुमायां शागिर्दों में मौलाना काज़ी असकरी ज़ैदी, मौलाना शमशाद अहमद गोपालपुरी, मौलाना मिर्ज़ा जावेद रज़ा लखनौती, मौलाना सय्यद अली देहरादूनी, मौलाना रईस अहमद जारचवी, मौलाना ग़ज़नफ़र अब्बास तूसी मौलाना ज़ाकिर रज़ा छौलसी और मौलाना डॉक्टर मुज़ाहिर अली छौलसी (प्रोफ़ेसर, शिया कॉलेज लखनऊ), वग़ैरह के नाम लिए जा सकते हैं।
सन 1981 ई॰ में अल्लामा ने मदरसा “हामिदुल मदारिस” को छोड़कर "मदरसा ईमानीया नासिरिया" जौनपुर आए, जो उस वक्त गिरावट की हालत में था। आपको मदरसे का प्रिंसिपल चुना गया। आपने मदरसे को नई जान दी, शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाया, बड़े और हवादार हॉस्टल बनवाए, खाने और पढ़ाई के लिए सुविधाएं दीं। पुराने और बोसीदा कुतुबखाने को फिर से बनाया ताकि छात्रों को मुतालए में दिलचस्पी हो। आपका पढ़ाने का तरीक़ा खासतौर पर नजफ़ी था, जो छात्रों के दिलों में घर कर जाता था। आप रसाइल, मकासिब, हमासा और मूतनब्बी जैसी ऊँचे दर्जे की किताबें बड़ी आसानी से और माहिराना पढ़ाते थे।
सन 2000 ई॰ में आप सरकारी नौकरी से रिटायर हुए, लेकिन आखिरी वक़्त तक मदरसा ईमानया नासिरिया की देखरेख करते रहे। पढ़ने के साथ-साथ आपने मेहराब और मिंबर के ज़रिए क़ौम और मुल्क की सुधार और धर्म के प्रचार की ज़िम्मेदारी भी निभाई। जौनपुर, जिसे "शिराज-ए-हिंद" कहा जाता है, शहर की खाली मस्जिदों में जमाअत की नमाज़ क़ायम करने के लिए तहरीक चलाई, सीनियर तुल्लाब और अध्यापकों को मस्जिदों में मुक़र्रर किया। अज़ा खानों और करबलाओं में शबे जुमा की मज़लिस का एहतेमाम किया किया ताकि मोमेनीन इस्लामी इस्लामी मआरिफ़ से रूशनास हो सके।
आप शहरे जौनपुर में इमामे जुमा भी थे। अपने खुतबों में खुले तौर पर अमर-बिल-मरूफ व नही अनिल-मुंकर का फर्ज निभाते थे। गैर-इस्लामी रिवाजों की खुलकर निंदा करते, बेहिजाबी और रीश तराशी जैसे मामलों पर बेबाकी से बात करते, और अहल-ए-बैत अ: की शख्सियत को अमल में लाने पर ज़ोर देते थे। इसलिए आपकी मज़लिसों में हर तबक़े के लोग बड़ी तादाद में शरीक होते थे।
आपने हिंदुस्तान के अलावा लंदन, दुबई, क़तर और पाकिस्तान में भी मज़लिसें पढ़ीं, और हर जगह अपने अनोखे और असरदार अंदाज़-ए-बयान से दिलों पर असर छोड़ा। आप "मजमए जहानी अहल-ए-बैत" के सदस्य भी थे, और कई बार ईरान की कांफ्रेंसों में भाग लेने गए। आप वलायत-ए-फक़ीह के जोरदार समर्थक थे और हमेशा इस सिस्टम को इस दौर में शिया शियत की बक़ा के ज़मानत बताते रहे। फ़ोक़हा की अहमियत, तक़लीद की ज़रूरत, और औलमा की इज्ज़त पर ज़ोर देते, और अहल-ए-बैत अ; के हक़ का दिफ़ा अपनी तक़रीरों और मुबाहिसे के ज़रिए करते रहे।
अल्लाह ने आपको तीन बेटियां और छह बेटे दिए, जिन्हें मौलाना महफूज़ुल हसन खान, मौलाना नासिर महदी खान, मस्रूरुल हसन, सरकर महदी, रिज़ा महदी, और अब्दुल महदी के नाम से जाना जाता है।
आख़िरकार, यह अज़ीम आलिम, फक़ीह, मुदब्बिर, उस्ताद और खतीब 1 अप्रैल 2018 को लखनऊ के एक अस्पताल में दिल के दौरे से इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। आपकी नमाज़-ए-जनाज़ा आयतुल्लाह हमीदुल हसन ने पढ़ाई, जिसमें कई औलमा, अफ़ाज़िल, तुल्लाब और मोमिनीन की बड़ी तादाद ने हिस्सा लिया। नमाज़-ए-जनाज़ा के बाद मज़मे की हज़ार आहो बूका के हमराह
आपको आपके आबाई गाँव अलीगढ़, जिला सुलतानपुर के खानदानी कब्रिस्तान में दफ़न किया गया।
माखूज़ अज़: मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-10 पेज-196 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2024ईस्वी।
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